अलामा इक़बाल की प्रसिद्ध शायरी
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा
अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल
लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे
मिटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा* चाहिए
कि दाना खाक में मिलकर, गुले-गुलजार होता है
सितारों से आगे जहां और भी हैं
अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं
साकी की मुहब्बत में दिल साफ हुआ इतना
जब सर को झुकाता हूं शीशा नजर आता है
गुज़र गया वो वक़्त जब तेरे तलबगार थे हम.
अब खुद भी बन जाओ तो सजदा न करेंगे..!
कितने आंसू बहूँगा उस बेवफा के लिए
जिसको खुदा ने मेरे नसीब मैं लिखा ही नहीं
खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तकदीर से पहले
खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा* क्या है
दिल की बस्ती अजीब बस्ती है,
लूटने वाले को तरसती है।
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