मन की चंचलता
कैसे कहु, कहा से कहु, और कब कहु इस यथार्त रुपी हकीकत को,
हर पल, हर भाव, और हर कदम में छुपाया हे जिसको,
ये विचारो का विवाद कर्मण्यता से नही था, पर
भावना की वास्तविकता का स्त्रोत बन बैठा,
कैसे कहु, कहा से कहु, और कब कहु इस यथार्त रुपी हकीकत को |
हर पल, हर भाव, और हर कदम में छुपाया हे जिसको,
ये विचारो का विवाद कर्मण्यता से नही था, पर
भावना की वास्तविकता का स्त्रोत बन बैठा,
कैसे कहु, कहा से कहु, और कब कहु इस यथार्त रुपी हकीकत को |
लकीरे तो वही थी, कुछ सीधी तो कुछ मुड़ी हुयी,
गन्तव्ये भी वही थे, कुछ दृष्टान्त तो कुछ ओजल भी पाये,
गति का बहाव भी कहि तीव्र तो कहि सुस्त मिला,
लहेरो की कल-कल में कहि शोर भी था, तो कुछ शांत भी दिखी,
कैसे कहु, कहा से कहु, और कब कहु इस यथार्त रुपी हकीकत को |
कुछ किरणो के कदमो में चंचलता थी तो,
कुछ किरणें मोंन अवस्था में भी प्रवाहित थी,
टूटे हुए झरोखे से पलकति हुयी निगाये दर्पण पर मिली,
जिसके केन्द्र पर छायाचित्र भी इतर के आँगन का था,
कैसे कहु, कहा से कहु, और कब कहु इस यथार्त रुपी हकीकत को |
कुछ किरणें मोंन अवस्था में भी प्रवाहित थी,
टूटे हुए झरोखे से पलकति हुयी निगाये दर्पण पर मिली,
जिसके केन्द्र पर छायाचित्र भी इतर के आँगन का था,
कैसे कहु, कहा से कहु, और कब कहु इस यथार्त रुपी हकीकत को |
@कमल सिंह मीणा
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