मन की व्यथा

सांझ भई, दिन ढल आया, पंछी कुटुम्ब संग लौटे अपने आस्याने को |
मनवा बावरा, क्यों तू अकेला इंतिज़ार करे, चलो अपने घर चल ||

जिंदगी का पैमाना भी बहुत आकर्सक हे जो वक्त के साथ खुद ही अपना मान बदल लेता हे |
बिना विस्तार के अपने नजरिये के बदलाव से ही मूल्यनिरूपण बदल देता हे ||

किनारा तो समतल ही था, पर कुछ जोखिम भरे जलचर भी थे उस दल दल में |
निकल पड़ा पैदल ही दरिया पार करने, आखिर कब तब तक इंतजार करता बिना माँजी के नाव का ||

न तेज दिखा न ही सौरये, दिखा तो बस वर्ण का प्रतिशोध |
अँधेरा तो पहले भी था और अब भी, पर पहले वास्तविक था अब आभासी ||

चाँद भी नही था, तो चाँदनी भी नही, बस कुछ तारे टिमटिमा रहे थे |
वक्त का तकाजा है, सदी बदल गयी तो आभास भी ||

                                                                कमल सिंह मीणा 

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